श्रीमद्भगवतगीता": एक दिव्य अनुभव

"श्रीमद्भगवद्गीता" की कल्पना करना हमें एक दिव्य और गहन अनुभव की ओर ले जाता है, जिसमें ज्ञान, भक्ति, और आध्यात्मिकता के गहरे सिद्धांत उजागर होते हैं। कल्पना कीजिए कि हम कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि पर खड़े हैं, जहाँ चारों ओर युद्ध का माहौल है, हजारों योद्धा अपने हथियारों के साथ तैयार खड़े हैं। 

कुरुक्षेत्र का युद्धक्षेत्र:

युद्धक्षेत्र पर धूल के बादल उठ रहे हैं, और हवा में शंखों की गूँज और युद्ध की पुकार सुनाई दे रही है। इस तनावपूर्ण माहौल के बीच, केंद्र में एक दिव्य रथ दिखाई देता है जिसे चार सफेद घोड़े खींच रहे हैं। रथ पर दो महान हस्तियाँ खड़ी हैं—अर्जुन और उनके सारथी, भगवान श्रीकृष्ण।

अर्जुन, कुरुक्षेत्र के महान योद्धा, अपने सामने खड़े अपने परिवार के सदस्यों, गुरुओं, और मित्रों को देखकर दुविधा में पड़ गए हैं। उनका मन भ्रमित है, और उनका हृदय दुख से भरा हुआ है। वह सोचते हैं, "कैसे मैं उन लोगों से युद्ध कर सकता हूँ जो मेरे अपने हैं?" उनकी आँखें अश्रुपूरित हो उठती हैं, और उनके हाथों से उनका शक्तिशाली गांडीव धनुष गिर जाता है।

श्रीकृष्ण का दिव्य संवाद:

अर्जुन के इस मानसिक संघर्ष के बीच, भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हैं और उन्हें संबोधित करते हुए कहते हैं, "हे पार्थ, यह मोह और शोक तुम्हारे योग्य नहीं है। उठो, और अपने कर्तव्य का पालन करो।" और यहीं से *श्रीमद्भगवद्गीता* का दिव्य संवाद शुरू होता है।

कृष्ण अपनी शांत, लेकिन दृढ़ आवाज़ में जीवन के रहस्यों को खोलते हैं। वे अर्जुन को आत्मा के शाश्वत स्वरूप का ज्ञान देते हैं और बताते हैं कि आत्मा न कभी जन्म लेती है, न मरती है; वह अजर, अमर और शाश्वत है। वह केवल शरीर बदलती है, जैसे पुराने कपड़े बदलकर नए कपड़े पहनती है।

योग का संदेश:

भगवान कृष्ण अर्जुन को कर्मयोग, ज्ञानयोग, और भक्ति योग का ज्ञान देते हैं:

- कर्मयोग: में वे कहते हैं, "हे अर्जुन, तेरा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फल में कभी नहीं। तू कर्म का फल कभी मत चाह, न ही आलस्य में कर्म से च्युत हो।"
  
- ज्ञानयोग:में वे सिखाते हैं कि सच्चा ज्ञान वही है जो आत्मा की पहचान कराता है और हमें सच्चे और असत्य के बीच का भेद समझाता है। यह समझना कि हम शरीर नहीं, बल्कि आत्मा हैं, जो नष्ट नहीं हो सकती, यह ज्ञानयोग है।

- भक्तियोग :में कृष्ण कहते हैं, "जो व्यक्ति मुझे अनन्य प्रेम से भजता है, वह मेरे में स्थिर हो जाता है और मैं उसमें।" यहाँ, भक्ति की महिमा का वर्णन करते हुए, कृष्ण कहते हैं कि भगवान की भक्ति में ही सच्ची मुक्ति है।

विराट रूप का दर्शन:

अर्जुन की शंकाओं को दूर करने के लिए, कृष्ण उन्हें अपना विराट रूप दिखाते हैं—एक दिव्य और भव्य रूप जिसमें संपूर्ण सृष्टि समाहित है। इस विराट रूप में अनगिनत सिर, अनगिनत भुजाएँ, सूर्य और चाँद उनके नेत्र हैं, और उनकी अग्नि जैसी चमकदार मुखमंडल से संपूर्ण ब्रह्मांड प्रकाशित हो रहा है। अर्जुन, इस दिव्य रूप को देखकर भयभीत और विस्मित हो जाते हैं और समझते हैं कि कृष्ण ही इस संसार के परमात्मा हैं, ब्रह्म हैं।

अर्जुन का आत्मसमर्पण:

अर्जुन, इस दिव्य अनुभव से अभिभूत होकर, भगवान के चरणों में अपना सिर झुका लेते हैं और कहते हैं, "हे कृष्ण, मेरी सभी शंकाएँ दूर हो गई हैं। अब मैं आपका शरणागत हूँ। आप मेरे गुरु और मार्गदर्शक हैं। मैं आपके बताए मार्ग पर चलने के लिए तैयार हूँ।"

गीता का सार:

"श्रीमद्भगवद्गीता" का संदेश हमें यह सिखाता है कि जीवन के प्रत्येक संघर्ष का सामना निस्वार्थ भाव से करना चाहिए। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने धर्म के अनुसार कर्म करें, लेकिन फल की चिंता किए बिना। यह हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान आत्मा की पहचान में है, सच्ची भक्ति भगवान में लीन हो जाने में है, और सच्चा कर्म वही है जो बिना किसी स्वार्थ के किया जाए।

इस प्रकार, "श्रीमद्भगवद्गीता" केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है; यह जीवन जीने की एक महान कला और दर्शन है, जो आज भी हर किसी के जीवन को प्रेरित करता है और मार्गदर्शन प्रदान करता है।

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