"श्रीमद्भभगवतगीता"- प्रथम अध्याय "अर्जुन-विषाद योग"
श्रीमद्भगवद्गीता के पहले अध्याय "अर्जुन-विषाद योग"
श्लोक 28
अर्जुन उवाच:
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति॥
""श्रीमद्भगवद्गीता"" का प्रथम अध्याय, जिसे "अर्जुन-विषाद योग" कहा जाता है, महाभारत के युद्ध के आरम्भ में घटित घटनाओं और अर्जुन के मानसिक संघर्ष का वर्णन करता है। इस अध्याय में, अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण के बीच संवाद का प्रारम्भ होता है, जिसमें अर्जुन अपनी भावनाओं, संशय और धर्म के प्रति दुविधा को प्रकट करता है।
अध्याय की मुख्य बातें:
1. धृतराष्ट्र और संजय का संवाद: अध्याय की शुरुआत में धृतराष्ट्र, जो कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र के दृश्य को देखने में असमर्थ हैं, संजय से युद्ध की स्थिति का वर्णन करने को कहते हैं। संजय, जिन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त है, धृतराष्ट्र को युद्ध के मैदान का दृश्य सुनाते हैं।
2. सेनाओं का वर्णन: संजय कुरुक्षेत्र में खड़ी दोनों सेनाओं - कौरव और पांडव - का वर्णन करते हैं। कौरवों की सेना की अगुवाई भीष्म पितामह कर रहे हैं, जबकि पांडवों की सेना की अगुवाई धृष्टद्युम्न कर रहे हैं।
3. अर्जुन का मनोबल गिरना: जब अर्जुन युद्ध के मैदान में अपने परिवार, गुरुओं और प्रियजनों को देखता है, तो उसका मन विचलित हो जाता है। उसे यह सोचकर अत्यधिक दुःख होता है कि उसे अपने ही संबंधियों के विरुद्ध युद्ध करना है। अर्जुन के मन में यह सवाल उठता है कि क्या यह युद्ध वास्तव में धर्म के अनुरूप है या नहीं।
4. अर्जुन का द्वंद्व: अर्जुन अपने प्रियजनों की मृत्यु और उनके विनाश से उत्पन्न होने वाले सामाजिक और धार्मिक परिणामों के बारे में सोचता है। वह सोचता है कि अगर वह अपने गुरुओं, भाइयों और संबंधियों को मार देगा, तो समाज में अनैतिकता और अधर्म बढ़ेगा।
5. अर्जुन का निर्णय: अंत में, अर्जुन हथियार डाल देता है और भगवान श्रीकृष्ण से कहता है कि वह युद्ध नहीं करेगा। अर्जुन अपने कर्तव्य और धर्म को लेकर भ्रमित हो जाता है और भगवान कृष्ण की शरण में जाता है, जो आगे के अध्यायों में उसे गीता का उपदेश देते हैं।
प्रथम अध्याय का सार:
पहले अध्याय में अर्जुन के मानसिक संघर्ष और उसकी दुविधा को चित्रित किया गया है। यह अध्याय पाठक को यह समझाने में सहायक है कि जीवन में धर्म, कर्तव्य और नैतिकता को समझने के लिए आत्मनिरीक्षण और मार्गदर्शन कितना महत्वपूर्ण है। इस अध्याय के अंत में, भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता के उपदेश देने के लिए तैयार होते हैं, जो उसके मन को शांत करने और उसे अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए प्रेरित करेंगे।
यह अध्याय गीता के उपदेशों के लिए आधारभूत भूमिका निभाता है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को धर्म, कर्तव्य, और आत्मज्ञान के मार्ग पर चलने का मार्गदर्शन देंगे।अध्याय 1 अर्जुन के द्वंद्व और मोह का प्रतीक है, जो किसी भी व्यक्ति के जीवन में आने वाले संघर्षों और उनके हल की आवश्यकता को दर्शाता है। आगे के अध्यायों में, भगवान कृष्ण अर्जुन की शंकाओं का समाधान करते हैं और उन्हें धर्म का वास्तविक अर्थ समझाते हैं।
प्रथम अध्याय ,श्लोक 28
अर्जुन उवाच:
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति॥
अनुवाद:
अर्जुन कहते हैं: हे कृष्ण! युद्ध के लिए उपस्थित अपने स्वजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं और मेरा मुख सूख रहा है।
यह श्लोक अर्जुन के मानसिक संघर्ष और युद्ध में अपने ही रिश्तेदारों और प्रियजनों के खिलाफ लड़ने की दुविधा को उजागर करता है, जो अध्याय 1 का मुख्य विषय है। यह उनके मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक विषाद को दर्शाता है, जो आगे के संवाद के लिए आधार तैयार करता है।
।।जय श्री कृष्ण।।
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